Saturday, November 9, 2013

उलझनें

उलझनें 
वक़्त की तंग गलियों से निकल
फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम
जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर 
विश्वास और अविश्वास की परछाईं है
ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए
जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है
कभी बनती और कभी बिगड़ती सी
आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें
कैसे खो सी जाती हैं धुआँ होकर
जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !
आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में 
वही ख़लिश सी छाई है..... 
रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर 
इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है
वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना
अपनी तो हर हाल में रुसवाई है
साथ देने को तैयार खड़ी खामोश सी ये 'ज़िंदगी
क्यूँ भला अब तक ना हमें रास आई है ??? 
प्रीति 'अज्ञात'

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