Sunday, January 26, 2014

मेरा शहर



कंपकंपायी जब धरतीतो मानो
फट पड़ा आसमाँ ही
और देखा मैंने मौत को
बेहद क़रीब से.
बख़्श दिया उसने मुझे
शायद मरा समझकर
पर जी न भरा उसका
तब ही तो, आगे बढ़ चली.

पलक झपकते ही जैसे,
बदल गईं सारी तस्वीरें
अब वो  मौज़ूद थी,हर जगह
किसी खिड़की पर लटकी हुई
कहीं दीवारों में धँसी हुई
फटी आँखें देख पा रही थीं
टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी
पत्थरों में दबी हुई.

धीरे-धीरे घुटती गई आवाज़ें
थम गया आर्तनाद भी
जमा होते रहे शरीर
परत-दर-परत, मलबा बनकर
चहुँ ओर सिर्फ़ मौन
कुछ बेबस, स्तब्ध आँसू भी
हर चेहरा सिर्फ़ मातम से सना था
'मौत' का तांडव ही ऐसा घना था
हाँ, आज मेरा शहर श्मशान बना था...!

प्रीति 'अज्ञात'

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