Sunday, January 26, 2014

मैं कहीं हूँ ही नहीं...

मैं कहीं हूँ ही नहीं, 
न दिल में , न ख्यालों में
न बातों में, न जज़्बातों में
न दोष दूँगी तुझे तन्हाई का
मैं खुद ही कहाँ अपने साथ हूँ.

दर्द में जो अक़्सर बरसती हैं
बीते लम्हों को जो तरसती हैं 
गिरा करती हैं अब बे-वजह भी
बस वही बे-मुरव्वत बरसात हूँ.

जमाने की चालों से डर गया
कोई कहीं जीते-जी मर गया
थामा होगा किसी मजबूरी में
छूटा हुआ वही अजनबी हाथ हूँ.

शुरू हुई थी जो मचलकर कभी
निकली है ज़ुबाँ से संभलकर अभी
जो तुम कहकर भी पूरी न कर सके
छटपटाती हुई वही अधूरी बात हूँ....

प्रीति 'अज्ञात'

2 comments:

  1. वाह ! अति सुंदर ! मन मोह लिया इस रचना ने!

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत शुक्रिया !

      Delete