Monday, June 30, 2014

बारिश - २

सुनते आए हैं सदियों से -
'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'
शांत जो कर लेते हैं, 
अपने हृदय की व्यथा चिल्ला-चिल्लाकर
तेज रोशनी में तमतमाकर
पर बंद हो जाते हैं, उनके भय से
सारे दरवाजे-खिड़कियाँ और रोशनदान भी !
लेकिन जो कह नहीं पाते
भरा करते हैं एक सहमी-सी हुल्कारी 
और काले घुप्प अंधेरे में, चुपचाप ही
बरस पड़ते हैं, कभी धीमी बारिश बन 
तो कभी मूसलाधार, 
फिर भी रखते हैं साथ उम्र-भर, 
उम्मीद की इक खुली खिड़की !

प्रीति 'अज्ञात'

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