Saturday, June 14, 2014

वैचित्र्य

रोज ही उठती है, 
प्रात:कालीन वचन के साथ
कि नहीं करेगी प्रतीक्षा
न अपेक्षा, न उम्मीद
जीएगी एकाकी ही, पहले-सा
हाँ, आश्वस्त भी करती है
अपने ही पागलपन को

फिर गुज़रते हैं, कुछ पल
घंटों में बदलते हुए
घड़ी की सुइयों की तरह ही
चलता है, मन-मस्तिष्क
पर इन सब ज़िम्मेदारियों
कर्त्तव्य और निर्वाह के बीच
बैचैन हो भटक रहा कोई
अचानक रौंदने लगता है
सुबह की प्रतिज्ञा
थम जाता है सब कुछ
यूँ हाथ तो अब भी
यन्त्रवत ही चला करते हैं.

मुस्कुराते चेहरे के पीछे
होती है उथल-पुथल
स्वप्न-सा कुछ तैरने लगता है
घबराकर थाम ही लेती है
उन्हीं धुंधली होती स्मृतियों का एक सिरा
कि श्वासों की गति अवरुद्ध न हो
उन्हें जीवित करने की ऊहापोह में
दौड़ती हुई अचानक
समय और फोन पर जैसे
बिठा आती हो आँखें.

पर धीरे-धीरे बैठता है हृदय ही
कुछ चिंता, उदासी और चिड़चिड़ापन
झलकता है माथे की लकीरों से
चाँद का आसमान में होना
अब उसे भाता ही नहीं 
जब देखो, सितारों से घिरा रहता है
निराश है अपने ही जीवन के वैचित्र्य से
कि रोज ही डूबा करती है सूरज संग
अनमनी-सी, कोसते हुए स्वयं को
और उसके उदय होते ही
फिर क्यूँ खिल उठती है !!

प्रीति 'अज्ञात'

No comments:

Post a Comment