Sunday, June 21, 2015

बचपन की यादें

कैसा सूनापन था उस दिन 
घर के हर इक कोने में, 
नानी तू जिस दिन थी लेटी 
पतले एक बिछौने में.

फूलों-सा नाज़ुक दिल मेरा 

सबसे पूछा करता था, 
कहाँ गया, मेरा वो साथी 
जो, सुख से झोली भरता था.

कैसे तू अपने हाथों से 

हर पल मुझे खिलाती थी, 
माथे की सलवटों में तेरी 
बिंदिया तक मुस्काती थी.

तू प्यार से मिलती, गले लगाती 

जाने क्यूँ रोया करती थी? 
तेरे गालों के गड्ढों से मैं 
लिपट के सोया करती थी.

पर मन मेरा था, अनजाना-सा 

कुछ भी नहीं समझता था, 
तुझसे जुदा होने का तब 
मतलब तक नहीं अखरता था.

अब आँगन की मिट्टी खोदूं 

तेरी रूहें तकती हूँ, 
संग तेरे जो चली गईं 
खुशियाँ तलाश वो करती हूँ.

आँसू बनकर गिरती यादें 

बस इक पल को तू दिख जाए. 
पर दुनिया कहती है, मुझसे ये 
जो चला गया, फिर न आए !
- प्रीति 'अज्ञात'

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