Tuesday, October 31, 2017

प्रेमिकाएँ

प्रेम में हारी हुई स्त्रियाँ 
प्रेम नहीं 
प्रेमी से हार जाती हैं 
प्रेमी जो न समझ सका 
उसके प्रेम को 
प्रेमी जिसके लिए 
प्रेम बस उसके 
एकांत और सुविधा का साथी रहा 
प्रेमी जिसे अपने ही सुख-दुःख से
होता रहा वास्ता 

उनकी प्रेमिकाएँ बांटती रहीं उनके सारे दुःख 
हंसती रहीं उनके सुख में 
साझा किया जीवन का हर रंग उनका
हर दुआ में लेती रहीं उनका ही नाम 
पर उन स्त्रियों के हिस्से 
फिर भी न आया प्रेम 
उसके नाम पर जो सौगात मिलती रही   
उसमें कुछ सवाल थे 
कुछ आक्षेप 
कुछ मजबूरियाँ
और शेष 
पुरुषवादी सोच के दंभ में डूबा
मालिकाना हक़

प्रेम कहीं भी नहीं था कभी 
और जब-जब तलाशा
खंगाला गया इसे 
रिश्तों की उखड्ती
तमाम शुष्क पपड़ियों के बीच 
हर बार 
छूटे छोर के  
अनगिनत टूटे हिस्सों को
खिसियानी गांठों से ढकती-जोड़ती
बदहवास-पगली 
स्त्री ही नज़र आई

छद्म प्रेम में
टूटती-बिखरती वही स्त्री
अब तक डूबी हुई है 
उसी प्रेम में
जो दरअसल उसके हिस्से 
कभी था ही नहीं!
- प्रीति 'अज्ञात'

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