Thursday, January 18, 2018

चिट्ठियाँ

आदमी को आदमी से मिलाती थीं चिट्ठियाँ 
कभी तोड़तीं तो जोड़ भी जाती थीं चिट्ठियाँ

जो दिल कहे वो हाल बताती थीं टूटकर 
हर राज़ भी सीने में छुपाती थीं चिट्ठियाँ 

कभी ग़म के आँसुओं में भिगोया रुला दिया 
तो दोस्त बन गले भी लगाती थीं चिट्ठियाँ 

ननिहाल या ददिहाल हो, जाने का वक़्त था
छुट्टी के सारे किस्से सुनाती थीं चिट्ठियाँ

होली हो, दीवाली या ईद, पर्व कोई भी
राखी के धागों-सी बंधी, आती थीं चिट्ठियाँ

जो मुस्कुराता प्रेम से देता था हर बधाई  
वो डाकिया कहाँ गया, लाता था चिट्ठियाँ 
-प्रीति 'अज्ञात'

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